कहानी - सौ रूपये की एक बात
एक सेठ था। वह बहुत ईमानदार तथा धार्मिक प्रवृत्तिवाला था। एक दिन उसके यहां एक बुढ़े संत महाराज आये।
उसको देखकर सेठ की उन पर श्रध्दा हो गयी। सेठ ने आदरपूर्वक उसको बैठाया प्रार्थना की कि मेरे लाभ के लिए
कोई बढिया बात बतायें। संत जी बोले कि बात तो बहुत बढ़िया बताउॅंगा, पर उसके दाम लगेंगे। एक बात के सौ
रूपये लगेंगे। सेठ ने कहा कि आप बात बताओं, रूपये मैं दे दॅूंगा। संत जी बोले - ‘छोटे आदमी यदि बड़ा हो जाये
तो उसको बड़ा ही मानना चाहिऐ, छोटा नहीं मानना चाहिऐं। सेठ ने मुनीम से संतजी को सौ रूपये देने के लिए
कहा। मुनीम ने सौ रूपये दे दिये। सेठ ने कहा कोई ओर बात बतायें। संतजी बोले - ‘दूसरे के दोष को प्रकट नहीं
करना चाहिऐं।‘ सेठ के कहने पर मुनीम ने इस बात के भी सौ रूपये दे दिये। सेठ बोला - और कोई बात बतायें।
संतजी बोले- ‘जो काम नौकर से हो जाय, उसको करने में अपना समय नहीं लगाना चाहिऐ।‘ मुनीम ने इसके भी
सौ रूपये दे दियें। सेठ बोला – ‘एक बात और बता दे।‘ संत जी बोले – ‘जहॉं एक बार मन फट जाय, वहॉं फिर
नहीं रहना चाहिऐं।‘ मुनीम ने इस बात के भी सौ रूपये दे दिये। संतजी चले गये। सेठ ने चारों बातें याद कर ली
और उसको घर में तथा दुकान में कई जगह लिखवा दिया।
कुछ समय के बाद सेठ के व्यापार में घाटा लगना शुरू हो गया। घाटा लगते-लगते ऐसी परिस्थिति आयी कि सेठ
को शहर छोड़कर दूसरी जगह जाना पड़ा । साथ में मुनीम भी था। चलते-चलते वे एक शहर के पास पहुँचे। सेठ ने
मुनीम को शहर से कुछ खाने-पीने का सामान लाने के लिए भेजा। देवयोग से उस शहर के राजा की मृत्यु हो गयी
थी। उसकी कोई संतान नहीं थी। अंत: लोगो ने फैसला किया था कि जो भी व्यक्ति शहर में प्रवेश करेगा, उसको ही
राजा बना दिया जायेगा। उधर मुनीम शहर में गया तो द्वार के भीतर प्रवेश करते ही लोग उसको हाथी पर बैठाकर
धूमधाम से महल में ले गये और राजसिंहासन पर बैठा दिया।
इधर सेठ मुनीम के लौटने की प्रतीक्षा कर रहा था। जब बहुत देर हो गयी, तब सेठ मुनीम का पता लगाने के लिए
खुद शहर में गया। शहर में जाने पर सेठ को पता चला कि मुनीम तो यहॉं का राजा बन गया है। सेठ महल में
जाकर उसे मिला। राजा बने हुए मुनीम ने अपनी सारी व्यथा सेठ को सुनाई तब सेठ को संतजी की बात याद आई
कि ‘छोटा आदमी बड़ा हो जाये तो उसको बड़ा ही मानना चाहिऐ’। सेठ ने राजा को प्रणाम किया। राजा ने उसको
मन्त्री बनाकर अपने पास रख लिया।
राजा के घुड़साल का जो अध्यक्ष था, उसका राजा की रानी के साथ अनैतिक सम्बन्ध बन गया था। एक दिन संयोग
से सेठ ने रानी को उसके साथ शयन करते हुए देख लिया। दोनो को नींद आयी हुई थी। सेठ को संतजी की बात
याद आई कि ‘दूसरे के दोष को प्रकट नहीं करना चाहिऐ’। सेठ ने रस्सी पर अपनी शाल डाल दी, जिससे दूसरा
कोई उनको देख न सके। जब रानी की नींद खुली, तब उसने सामने रस्सी पर शाल टँगी हुई देखी। उसने पता
लगवाया कि यह शाल किसकी है। पता चला कि यह शाल मन्त्री (सेठ) की है। उसके मन में विचार आया कि यह
मन्त्री राजा के सामने मेरी पोल खोल देगा, क्योंकि दोनो में आपस में बड़ी मित्रता है। अंत: मेरे को पहले ही ऐसा
काम करना चाहिये, जिससे यह खुद ही फँस जाय। रानी सेठ के शाल को लेकर राजा के पास गयी ओर बोली कि
आज रात में अपना मन्त्री बुरी नीयत से मेरे पास आया था। परन्तु मैने उसकी कुचेष्टा को सफल नहीं होने दिया।
मेरे चिल्लाने के डर से वह भागने लगा तो मैने उसकी शाल छीन ली। यह देखो उसकी शाल। राजा ने देखा तो
पहचान लिया कि जब वह मुनीम था, तब उसने ही यह शाल खरीदकर सेठ को दी थी। रानी की चिकनी-चुपड़ी
बातों से राजा की बुध्दि फिर गयी। उसने रानी की सलाह से सेठ को खत्म करने का विचार कर लिया।
दूसरे दिन राजा ने सेठ को कसाई से मांस लाने के लिए कहा। उधर कसाई को पहले ही कह दिया कि कोई आदमी
तेरे पास मांस लेने के लिए आये तो उसको मार देना। सेठ को बड़ा आश्चर्य हुआ कि मैं मांस छूता तक भी नही, फिर
भी राजा ने मेरे से मांस लाने के लिए कह दिया। इसमे जरूर कुछ-न-कुछ तो है। सेठ को संतजी की बात याद
आयी कि ‘ जो काम नौकर से हो जाये, उसको करने में अपना समय नहीं लगाना चाहिये।‘ सेठ ने फौरन मांस लाने
के लिए अपने नौकर को भेज दिया। कसाई ने नौकर को मार दिया। इधर राजा को गुप्तचरों के द्वारा घुड़साल के
अध्यक्ष के साथ रानी के अनैतिक सम्बन्ध का पता लग गया। राजा को भारी पश्चात्ताप हुआ कि रानी की बातों में
आकर मैने इतने ईमानदार सेठ को मरवा दिया। बाद में पता लगा कि सेठ तो जीवित है। राजा को बड़ी प्रसन्नता
हुई। वह एकान्त में सेठ के पास गया और अपनी भूल के लिए क्षमा मॉंगी। राजा ने पूछा कि आपकी शाल रानी के
पास कैसे आयी सेठ कहा कि संतजी की कही हुई सौ-सौ रूपये वाली चार बातें तो आप जानते ही है, मैं उन्हीं का
पालन किया करता हॅू। रानी घुड़साल के अध्यक्ष के पास लेटी थी और दोनों को नींद आ गयी थी। मेरे को संतजी
की कह हुई बात याद आ गयी थी कि दूसरे के दोष को ढकने के लिए रस्सी पर शाल डाल दी। वही शाल रानी ने
उठा ली और आपके पास ले गयी। राजा ने सेठ से प्रार्थना की कि अब आप पुन: अपना मन्त्री पद सम्भाले। सेठ को
संतजी की बाद याद आ गयी कि ‘जहां एक बार मन फट जाय, वहाँ फिर नहीं रहना चाहिये’। सेठ बोला कि अब मैं
यहाँ पर नहीं रहॅुगा, चला जाउँगा। राजा ने रूकने के लिए बहुत प्रार्थना की, पर सेठ माना नहीं और अपने गन्तव्य
की ओर चला गया।
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